कथासम्राट प्रेमचंद एक प्रगतिशील और जनवादी लेखक माने जाते
हैं । तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने जो कुछ भी देखा, सुना,
समझा उसे अपनी रचनाओं के माध्यम से यथावत प्रस्तुत करने का प्रयास किया । उनका
उपन्यास ‘गोदान’ यथार्थ पर आधारित सबसे महत्वपूर्ण महाकाव्यात्मक कृति मानी जाती
है । वस्तुतः यह एक कृषक जीवन का महाकाव्य है जिसकी रचना प्रेमचंद ने 1936 में की
थी । उपन्यास में ग्रामीण स्तर पर किसानों के जीवन की त्रासदी को स्वाभाविक, सरल
और सहज रूप में दिखाया गया है ।
आज के सन्दर्भ में गोदान की प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा
सकता । प्रासंगिकता के सन्दर्भ में रमेश चन्द्र साह लिखते हैं कि ‘रचना के
प्रासंगिकता के निष्कर्ष एकहरा नहीं हो सकता, क्योंकि वह रचना की प्रासंगिकता का
निष्कर्ष है । जिसका रचनात्मक काव्य संस्कृति के मूल्यों पर भी प्रासंगिक हो ।
इसके साथ ही साथ वह रचना प्रासंगिक है जो अपने समय की मानव सच्चाइयों का पूरी
जटिलता के साथ साक्षात्कार करवाती हो । यह दोहरी प्रासंगिकता रचना की राह में हर
अवरोध को, हर रचना द्रोही परिस्थितियों को तोड़नेवाली होंगी और मनुष्य मात्र की
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाली होगी । जाहिर है कि यह तभी हो सकता है जब रचना
समसामयिक ही न हो बल्कि मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता को कुंठित करने वाले हर खतरों
की सुध लेने वाली हो । अतीत की वर्तमानता को पहचाननेवाली हो ।’ इसी में वे आगे
लिखते हैं कि ‘मानवीय मूल्यों और आचरण की सभ्यता पर अस्तित्व लोक का संकट कितना ही
गहरा क्यों न हो जाय, साहित्य की प्रासंगिकता विलुप्त नहीं हो सकती । इसलिए होमर,
दांते, शेक्सपियर, टॉलस्टॉय, गोर्की आदि विदेशी तथा वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भारतेंदु,
सुशील कुमार, हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, निराला, प्रेमचंद, पन्त, दिनकर आदि के
साहित्य को अप्रासंगिक मानाने की कोई प्रासंगिकता नहीं ।’
प्रासंगिकता से अभिप्राय होता है वर्तमान के सन्दर्भ में
पूर्ववर्ती कृति या कृतिकार की नैतिक या सामाजिक मूल्यों का विवेचन करना । यद्यपि
इस प्रासंगिकता शाब्द का प्रयोग समसामयिक साहित्य के सन्दर्भ में किया जा सकता है ।
परन्तु यह पूर्ववर्ती रचना में अधिक उपयुक्त लगता है । जब भी किसी साहित्यकार की
रचना के विषय में प्रासंगिकता के सन्दर्भ में प्रश्न उठाया जाता है तो इसका मुख्य कारण
वर्तमान में बदलते मानवीय मूल्य व जीवन दृष्टि से होता है । आज का समाज तेजी से
बदल रहा है । आज की जीवन दृष्टि भी हर एक वस्तु का मूल्याङ्कन वर्तमान के सन्दर्भ
में ही करने का प्रयास करती है । साहित्य के सन्दर्भ में भी यही बात आती है ।
अर्थात जो साहित्यिक कृति अपने आप को वर्तमान से जोड़े नहीं रख पाती वह काल कवलित
हो जाती है । प्रेमचंद का गोदान वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी अपनी प्रासंगिकता
बनाये हुए है । यह रचना अपने रचनाकाल में सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप जितना
महत्व रखती है उतनी ही महत्ता आज के परिवेश में भी इसकी बनी हुई है । यद्यपि आज का
समाज प्रेमचंद युगीन समाज से विज्ञान और तकनीकी रूप से काफी आगे है ।
किसी भी साहित्यिक रचना के विषय में रचना को लेकर विचार उठना
स्वाभाविक है कि जिन जीवन मूल्यों, विचार दर्शनों की स्थापना उस समय के साहित्य
में की गयी थी, वर्तमान परिवेश के वे दर्शन और मूल्य कहीं चुक तो नहीं गए । जिन
आदर्शों को साहित्य में ढाला गया है, क्या वे आज भी ग्राह्य हैं । इन प्रश्नों के
आधार पर पुर्ववर्ती साहित्य पर तीक्ष्ण प्रहार किये गए हैं । देखना यह होता है कि
उस साहित्य की प्रमाणिकता कितनी प्रासंगिक
है । इसी परिप्रेक्ष्य में यदि हम प्रेमचंद के गोदान को देखें तो अनेक नवीन और
विस्फोटक तत्वों से परिचय होता है और यह भी प्रतीत होता है कि उनका साहित्य उनकी
दृष्टियों में कितना नववैचारिकता से संपन्न-समृद्ध एवं प्रासंगिक है ।
प्रेमचंद ने जिस गाँव का उल्लेख किया उसे हम किसान समाज के
विषय में एक लघु संसार की तरह पढ़ सकते हैं । यह समाज अंग्रेजी उपनिवेश वादी शासन
के तहत टूटकर बिखर रहा था । इसका केंद्र था किसान । होरी इस उपन्यास का नायक है ।
लेकिन यह कैसा नायक है जो लगातार मौत से बचना चाहता है पर बच नहीं पाता है और साठ
साल का उम्र भी पूरा नहीं कर पाता है । इसी त्रासदी को रामविलास शर्मा ने धीमी नदी
का ऐसा बहाव कहा है जिसमे डूब जाने के बाद आदमी की लाश ही बाहर आती है । किसान का
जीवन सिर्फ खेती पर निर्भर रहता है । वह सूदखोरों, पुरोहितों एंव रिश्वतखोरों से
खून चुसनेवलों से परेशान रहता है ।
आज भी किसान इन्हीं की
गिरफ्त में फंसकर रह जाते हैं । इससे ऊबर नहीं पाते हैं । असल में खेती के संबंध
में अंग्रेजों ने जो कुछ शुरू किया था । उसे आज की सरकार दिन-प्रतिदिन बढ़ावा दे
रही है । और होरी की मौत में हम आज के किसानों की आत्महत्याओं के रूप में महसूस कर
रहे हैं । हम सभी जानते हैं कि अंग्रेजों ने जो व्यवस्था का बंदोबस्त किया उसी के
बाद किसानों और केन्द्रीय शासन के बीच का नया वर्ग जमींदार पैदा हुआ । उस जमींदारी
व्यवस्था के अनुसार से तो सारे गाँव के किसानो का जीवन संकटमय था । ऐसा एक भी आदमी
नहीं था जिसकी उदासी सूरत न हो मानो उसके प्राणों की जगह दर्द ही बैठकर उन्हें
कठपुतलियों की भांति नचा रही हो । वे भी चलते-फिरते थे, काम करते थे, घोटते थे,
पिसते थे इसीलिए कि घोटना और पिसना उसके नसीब में ही लिखा है । जीवन में न कोई आशा
है, न कोई उमंग जैसे उनके जीवन की सुख चैन छीन गई हो और हरियाली मुरझा गई हो । ‘उस
समय भारत के अर्थतंत्र के सबसे प्रमुख क्षेत्र के उत्पादकों के ऐसे ही हालात थे ।
थोड़ी ही देर में इसकी वजह का भी वे संकेत करते हैं।’ अभी तक खलिहानों में अनाज
मौजूद है पर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है । बहुत कुछ तो खलिहानों में ही तुलकर
महाजनों और कारिंदों की भेट हो चुका है और जो कुछ बचा है, वह भी दूसरों का है ।
भविष्य अंधकार के समान है । उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता । उनकी सारी चेतानाएं
स्थिर हो चुकी हैं । ध्यान देने की बात यह है कि आज भी ग्रामीण इलाकों में कर्ज का
70% हिस्सा सूदखोरों के पास ही जाता है और उन्हें सदियों पुरानी एक व्यवस्था में
बांधे रखता है । किसानों की आत्महत्याओ के पीछे सूदखोरों की मनमानी देखी गयी है ।
उपन्यास का नायक होरी पर यह विपत्ति जिस घटना के कारण घटती
है वह उसके बेटे का अंतरजातीय विवाह के कारण है । होरी के बेटे गोबर को दूसरी जाति
की एक विधवा लड़की से प्रेम हो जाता है । वह उससे गर्भवती हो जाती है । गोबर उसे
छोड़कर भाग जाता है । गर्भवती बहू को होरी और धनिया अपने घर में ही रख लेते हैं ।
समाज में पंचायती व्यवस्था होती है जो समाज की मान मर्यादा की रक्षा करता है ।
पंचायती फरमान के अनुसार होरी को जाति से बाहर कर दिया जाता है । सामूहिकता पर
आधारित ग्रामीण जीवन में एक-दूसरे के सहयोग के बिना किसान का जीना असंभव हो जाता
है । इसलिए जब वह जाति में आने के लिए पंचायतों का पांव पकड़ते हैं तो वही पंचायत
साजिशकर उस पर अस्सी रुपये का जुर्माना लगा देता है । जुर्माना अदा करने में उसका
सारा अनाज पंचो के घर पहुँच जाता है ।
यह उपन्यास किसान के क्रमिक दारिद्रीकरण की शोक गाथा है ।
पांच बीघे खेत का मालिक खेत को देकर मजदूर बन जाता है । उपन्यास का एक जालिम पात्र
झिंगुरी सिंह कहता हैं ‘कानून और न्याय उसका है जिसके पास पैसा है । कानून तो है
कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई न करे, कोई जमींदार किसी कास्तकार के साथ सख्ती न
करे, मगर होता क्या है । रोज ही देखते हो । जमींदार मुसक बंधवाके पिटवाता है और
महाजन लात और जूते से बात करता है । जो किसान पोढ़ा है, उससे न जमींदार बोलता है, न
महाजन । ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन
दबाते हैं ।’
जिस इलाके की कहानी इस
उपन्यास में कही गयी है वहां अन्य फसलों से अधिक गन्ने की खेती होती है । गन्ने की
पेराई से पारंपरिक तौर पर गुड़ बनाने से नकद रूपया न मिलता था । परिस्थिति में
बदलाव आया । चीनी मीलों के खुलने से जिनके मालिक खन्ना साहेब भी अपनी मीलों के
चलते इसी अर्थ तंत्र के अंग हैं । वे बैंकर भी हैं और उद्योगपति भी । उनकी मिल में
नकद दाम मिलने की आशा किसानों को होती है और उसी के साथ यह भी कि शायद ये पैसे
महाजन और सूदखोरों से बच जाय । लेकिन गाँव के सूदखोर मिल के भुगतान होते ही वे
कार्यालय के सामने किसानों से अपना कर्ज वसूलकर ही उसे जाने देते हैं । आज भी
गन्ना उगाने वाले किसानों के साथ यही होता है ।
ग्रामीण अर्थ तंत्र का ही एक हिस्सा जमींदार भी होता है ।
उस गाँव के जमींदार रायसाहेब अमरपाल सिंह है । और उनके जरिये प्रेमचंद तत्कालीन
राजनीतिक परिस्थितियों पर भी टिप्पणी करते हैं क्योंकि किसानों को शोषण करने की जो
प्रक्रिया है वह बिना राजनीति के नहीं चल सकती थी । यही प्रेमचंद उस समय के
कांग्रेसी राजनीती की आलोचना करते हैं । उनकी आलोचना को समय ने सही साबित किया है
। राय साहेब जमींदार हैं और कांग्रेस के नेता भी हैं । वे अंग्रेजों द्वारा
स्थापित तत्कालीन भारतीय शासन व्यवस्था में कौंसिल के मेम्बर भी हैं । इसी तरह
खन्ना मिल का मालिक और बैंकर होने के साथ ही कांग्रेसी भी है । इस कांग्रेसी
राजनीती की आलोचना प्रेमचंद ने धनिया के मुख से करवाया है । वे कहती हैं ‘ये
हत्यारे गाँव की मुखिया है, गरीबों का खून चूसने वाले हैं । सूद-व्याज,
नजर-नजराना, डेढ़ी-सवाई, घुस-घास जैसे भी हो गरीबों को लूटो । जेल जाने से सूराज न
मिलेगा । सूराज मिलेगा धरम से न्याय से ।’
आज भी वर्तमान में भारतीय किसान की दशा होरी जैसी ही है ।
गोदान का नायक होरी की यातना केवल यहीं तक सीमित नहीं है कि उसे आर्थिक व्यवस्था
ने कितना कुचल डाला है बल्कि यह है कि उस अवस्था में वह अपने उन दायित्वों को
संपन्न नहीं कर पाता है । वह मरते दम तक गोदान के लिए पैसे भी नहीं जुटा पाता जो
उसकी आत्मा को यह लोक न सही परलोक में शांति दे सके । डॉ. रामविलास शर्मा
‘प्रेमचंद और उनका युग में लिखते हैं कि –“प्रेमचंद ने जब गोदान लिखे थे तब वे खुद
भी कर्ज से दबे हुए थे । गोदान की मूल समस्या ऋण की समस्या है । इस उपन्यास में
किसानों के साथ मानो वह आपबीती भी कह रहे थे ।”
गोदान में होरी के ऊपर जो सामाजिक सांस्कृतिक दबाव प्रेमचंद
ने दिखाया है उससे आज भी कोई किसान यदि कोई समझौता करना चाहे तो वह नहीं कर सकता
है । आज भी समाज में सामाजिक संस्कृति के तहत हर किसी के ऊपर यह दबाव बना रहता है
कि परिवार या समाज में किसी के मरणोपरांत गोदान जैसे कर्मकांड की भूमिका अदा करे
अथवा करवाए चाहे वह आर्थिक रूप से कितना ही कमजोर हो । होरी जीतेजी मेहनत करते हुए
गाय तो नहीं खरीद पाता है लेकिन उसी पैसे को धार्मिक, सांस्कृतिक विडंबना के तहत
मुक्ति की आकांक्षा के लिए ब्राह्मणों को गोदान के लिए देना पड़ता है ।
सामाज में जातिगत भेदभाव भी चरम पर है । होरी और धनिया को
इसी जातिगत भेदभाव की वजह से उस समय उसका समाज से हुक्का पानी बंद हो जाता है । जब
गोबर झुनिया को प्रेमविवाह के तहत घर लाने के लिए मजबूर हो जाता है तो उसे इसके
प्रायश्चित के लिए जुर्माने भी भरने पड़ते हैं । अंतरजातीय विवाह को लेकर प्रेमचंद
ने जो इस प्रकार की समस्या दर्शाई है वह आज भी प्रासंगिक है । जो खुले मंच पर अपनी
बेटी-रोटी की बात तो खूब सजाकर कहता है परन्तु घर जाकर वह वही करता है जो उसके
पूर्वज पहले से करते आये हैं ।
प्रेमचंद ने गोदान में जिस हिन्दू मुस्लिम की संस्कृति से
बढ़कर अर्थतंत्र की संस्कृति के बात करते हैं उससे आज भी इनकार नहीं किया जा सकता
है । बल्कि अर्थ तंत्र की वह संस्कृति आज भी हमारे समाज पर प्रचंड रूप से हावी है ।
इसे धर्म की न्यायिक विडंबना ही कहेंगे कि गोदान कि होरी और पंडित दातादीन दोनों
की स्थिति एक दूसरे से भिन्न और विरोधी है जो धर्म पंडित दातादीन को प्रभुता
संपन्न बनाता है वही धर्म होरी को वंचित और असहाय कर देता है । होरी के जीवन की दो
महत्वपूर्ण घटनाएं उसके जीवन को बुरी तरह से झकझोर देती है । एक है उसके द्वार पर
खूंटे से बंधी गाय का मरना और दूसरा उनके बेटे द्वारा विधवा झुनिया को बिना व्याह
किये पत्नी के रूप में अपना लेना । यद्यपि होरी इन दोनों ही घटनाओं के प्रति
जिम्मेदार नहीं है इसके बावजूद धर्म विरादरी और मर्यादा के तहत उसपर समाज द्वारा जुर्माना
लगाया जाता है । जिससे वह कर्ज के दुश्चक्र में फंस जाता है । परिणामतः इस
दुश्चक्र से निकलने के लिए अंततः अपने जमीन जायदाद गिरवी रखकर किसान से मजदूर बनने
के लिए मजबूर हो जाता है । आज भी भारतीय किसान ऐसी अर्थ संस्कृति के हिस्से से
इनकार नहीं कर सकता है ।
गोदान में प्रेमचंद ने नारी विमर्श को लेकर भी काफी सजगता
के साथ पात्रों का नियोजन कर अपनी बातों को कहने का प्रयास किया है । उपन्यास में
दलित एवं किसान पृष्ठभूमि की स्त्रियाँ अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं अधिकारों के
प्रति सजग है । धनिया के अलावा झुनिया, नोहरी, सोना आदि कई ऐसे स्त्री पात्र हैं
जो नारी अस्मिता के मुखर आवाज हैं । नारी की जिस स्थिति को तत्कलीन रचनाकार
मैथलीशरण गुप्त अपनी यशोधरा में यह कहकर व्यक्त करते है कि ‘अबला जीवन हाय
तुम्हारी यही कहानी, आँचल में हो दूध और आँखों में पानी ।’ उसी समय प्रेमचंद नारी
की ऐसी छवि को इनकार करते हुए बिना किसी नारे बाजी और मुहावरे से पात्रों के
द्वारा प्रतिरोध व्यक्त करवाया है । पंडित जी द्वारा छेड़छाड़ किये जाने पर झुनिया
कहती है “इस फेर में न रहना पंडित जी ! मैं अहीर की लड़की हूँ । मूंछ का एक-एक बाल
नुचवा लुंगी । यही लिखा है तुम्हारे पोथी-पथरे में कि दूसरे की बहु बेटी को अपने
घर में बंद करके बेज्जित करे ।...हांडी उसके मुंह पर दे मारी ।”
प्रेमचंद नारी के सशक्तिकरण को लेकर कहते हैं कि “अपने को
मिटाने से काम न चलेगा । नारी को समाज कल्याण के लिए अपने अधिकारों की रक्षा करनी
पड़ेगी । उसी तरह जैसे- इन किसानों को अपनी रक्षा के लिए इस देवत्व का कुछ त्याग करना
पड़ेगा ।”
प्रेमचंद का नारीवादी दृष्टिकोण एकालवादी के बजाय भारतीय
सामाजिक संरचना के अनुकूल बहुलवादी है । पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत अनुकूलन की
स्थिति में वहां नारी मुक्ति की छटपटाहट है जहाँ विवाह की आलोचना करते हैं वहीं वे
उसके महत्व को भी रेखांकित करते हैं । आज जिस लिव-इन-रिलेशनशिप को लेकर युवाओं में
मुक्ताकंक्षा है । इसी मुक्ताकंक्षा को प्रेमचंद ने मेहता और मालती के बीच आपसी
संवाद और सम्बन्ध को दर्शाकर आधुनिक युवा मानसिकता को व्यक्त किया है । प्रेमचंद
ने नारीवाद का कोई मॉडल तो प्रस्तुत नहीं किया है लेकिन भारतीय समाज की नारी की
दशा का यथार्थ स्थिति को प्रस्तुत कर उसकी भूमिका को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखांकित
जरूर किया है । स्त्री-पुरुष को लेकर विवाह प्रेम, तलाक, प्लेटोनिक लव का छलावा
आदि मनः स्थितियों को प्रेमचंद ने जिस दूरदर्शिता के साथ व्यक्त किया है वह आज भी
प्रासंगिक है ।
गरिमा कुमारी
संदर्भ सूची
1.
प्रेमचंद, गोदान
2.
डॉ. रामविलास शर्मा – प्रेमचन्द और उनका युग
3.
विभिन्न वेब स्रोत
गहरी समझ
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