मोहनदास करमचंद गाँधी जिसे प्यार से ‘बापू’ कहते हैं । इन्हें रविन्द्रनाथ टैगोर ने ‘महात्मा’ की उपाधि प्रदान की । राष्ट्रनिर्माण में उत्कृष्ट योगदान देने के कारण इन्हें ‘राष्ट्र का जनक’ भी कहा जाता है । इन्हें सुभाष चन्द्र बोस ने ‘राष्ट्रपिता’ कहा । इस प्रकार इन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नाम से भी हम सभी जानते हैं । इनका जन्म 2 अक्टूबर, 1869 में गुजरात के काठियावाड़ जिले के पोरबंदर नामक स्थान में हुआ था । उनके पिता करमचंद गाँधी पोरबंदर रियासत के दीवान थे । वे इमानदार, साहसी और उदार प्रकृति के थे । उनकी माता पुतली बाई साध्वी, श्रद्धालु एवं धर्मपरायण महिला थी । गाँधी जी को बाल्यकाल में ही उन्हें अपने माता-पिता से नैतिक संस्कारों का बहुत गहरा असर पड़ा । सत्य और अहिंसा के अग्रदूत गाँधी जी की जीवन दृष्टि भारत के सामाजिक राजनैतिक और शैक्षिक जन-जीवन को प्रभावित किया । 30 जनवरी, 1948 को वे हमसभी के बीच नहीं रहे ।
भारतीय प्राचीन शिक्षा गुरुकुल प्रणाली की थी । आज की तरह वह व्यावसायिक नहीं थी । गुरुकुल का खर्च गाँव के समृद्ध किसान उठाते थे । गुरुकुल में बच्चे सेवा भाव से शिक्षार्जन करते थे और माता-पिता, गुरु, समाज के प्रति अपने नैतिक कर्तव्यों को समझते हुए समाज और देश के निर्माण में अपना योगदान देते थे । इस तरह की शिक्षा व्यवस्था को गाँधी जी ‘द व्यूटीफुल ट्री’ कहते थे । क्योंकि उन्हें मालूम था कि भारत में शिक्षा सरकारों के बजाय समाज से संचालित होती थी । उन्होंने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा था कि “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक तथा मनुष्य में निहित शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक श्रेष्ठतम शक्तियों का अधिकतम विकास है । उस शिक्षा से व्यक्ति समाज और देश की राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दासता का विरोध कर स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर हो सकता है ।” वे शिक्षा को सार्वभौमिक रूप से प्रसारित करना चाहते थे ।
भारत में अंग्रेजों द्वारा विकसित शिक्षा पद्धति कई प्रकार से हमारे लिए हानिकारक थी । उन्होंने हमारी भाषा और संस्कृति को बुरी तरह से प्रभावित किया । गाँधी जी को उनकी शिक्षा पद्धति को लेकर जो खामिया दिखी वे इस प्रकार हैं –
यह विदेशी संस्कृति पर आधारित थी जिसने स्थानीय संस्कृति समाप्त कर दी ।
यह ह्रदय और हाथ की संस्कृति की उपेक्षा कर दिमाग तक सिमित कर देता है ।
विदेशी भाषा के माध्यम से सही शिक्षा संभव नहीं है ।
गाँधी जी अंग्रेजी शिक्षा को मानसिक गुलामी का कारण बताते हुए कहते हैं कि “अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने राष्ट्र को गुलाम बनाया है । अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म, वगैरह बढे हैं ।” इसी यथास्थिति को भांपते हुए वे अंग्रेजो के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया । इस आन्दोलन के तहत गाँधी जी ने हिन्दुस्तानियों से सरकारी संस्थानों के बहिष्कार का आह्वाहन किया । औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली की जगह उन्होंने एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास किया । इस राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत मानव श्रम को उसका उचित स्थान देते हुए मनुष्य के ह्रदय और मस्तिष्क का समन्वित विकास करना था ।
गाँधी जी एक महान राजनीतिक, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेवक, चिन्तक एवं उच्च कोटि के शिक्षा शास्त्री थे । उनका दृढ़ विशवास था कि शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जिससे भारतीय समाज उन्नति कर सकता है । उन्होंने शिक्षा पर विशेष बल देकर उसपर कई प्रयोग किये । उन्होंने शिक्षा के विभिन्न पक्षों पर गहन चिंतन किया और अनेक पुस्तकें भी लिखी । जैसे - सच्ची शिक्षा, शिक्षा की समस्या, शिक्षा नयी तालीम की ओर, हिन्द स्वराज, दिल्ली डायरी, आश्रम वासियों से आदि ।
देश के प्रमुख शिक्षा विदों में गाँधी जी का नाम भी शामिल है । गाँधी जी के शिक्षा सम्बन्धी विचार विभिन्न पक्षों पर इस प्रकार है ।
गाँधी जी ने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है कि “शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक तथा मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथ आत्मा के भीतर विद्यमान गुणों का सब प्रकार से सर्वोत्तम विकास करना है ।” उन्होंने बार-बार इस बात पर बल दिया है कि साक्षरता न तो शिक्षा का अंत है और न ही आरम्भ, यह केवल एक साधन है । जिस व्यक्ति को शिक्षित किया जाता है । वे सच्ची शिक्षा के सन्दर्भ में कहते हैं “दिमाग को हाथ के काम द्वारा शिक्षा मिलनी चाहिए । मैं कवि होता तो हाथ की पांच उँगलियों की अद्भुत शक्तियों के बारे में कविता लिखता । दिमाग ही सबकुछ है और हाथ पैर कुछ नहीं, ऐसा आप क्यों मानते हैं ? जो अपने हाथ को शिक्षा नहीं देते, जो शिक्षा की सामान्य रुढ़ि में से होकर निकलते हैं, उनका जीवन नीरस बन जाता है...दिमाग खाली शब्दों से थक जाता है और बच्चे का मन भटकने लगता है । हाथ न करने लायक काम करते हैं, आँखे न देखने लायक चीजें देखती हैं, कान न सुनने लायक बातें सुनते हैं और उनको क्रमशः जो कुछ करना, देखना और सुनना चाहिए, उसे वे करते, देखते और सुनते नहीं हैं...जो शिक्षा हमें अच्छे बुरे का भेद करना एवं अच्छे को ग्रहण करना और बुरे को त्यागना नहीं सिखाती, वह शिक्षा सच्ची शिक्षा नहीं है ।”
गाँधी जी ने अपने शिक्षा दर्शन में बुनियादी शिक्षा की बात की है जिसका अर्थ है जीवन की बुनियादी जरूरतों से जुड़ी शिक्षा । गाँधी जी का शिक्षा दर्शन उनके दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और इंडिया में मिले अनुभवों पर आधारित है । गाँधी जी सर्वोदय अर्थात सबका हर तरह से कल्याण हो, सबके हित में अपना हित समझना ही सर्वोदय है । वे इस बात को हमेशा ही महत्व देते थे । वे श्रम के प्रति एक उचित नजरिया पैदा करना ही शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानते थे । उनका मानना था कि शिक्षा का लक्ष्य समाज को संगठित करना तथा श्रम के प्रति उचित दृष्टिकोण पैदा करना होना चाहिए । उनके अनुसार समाज ऐसा हो जिसमें सब मिलकर रह सकें और यह कार्य शिक्षा द्वारा ही संभव था । उन्होंने मेहनत, मजदूरी करने वालों के प्रति सम्मान की भावना से देखने के लिए शिक्षा को एक महत्वपूर्ण औजार माना ।
हमारी शिक्षा सामाजिक जरूरतों का दर्पण होता है । अर्थात, जो शिक्षा है वह समाज की जरूरतों के अनुरूप होनी चाहिए । गाँधी जी का मानना था कि लड़कों को जो कुछ सिखाया जाय वह दस्तकारी उद्योग के माध्यम से सिखाया जाय । वे चाहते थे कि बालक को वर्ण सिखाने से पहले कटाई की कला सिखाई जाय । गाँधी जी शिक्षा में बालक को केंद्र बिंदु मानते थे और ऐसा मानना मनोवैज्ञानिक भी था । हाथ, ह्रदय और मस्तिष्क का समन्वय उनकी शिक्षा का आधार था ।
उनके अनुसार शिक्षित व्यक्ति का मतलब एक आत्मनिर्भर व्यक्ति था अर्थात ‘शिक्षा को ऐसा ही होना चाहिए जो व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाये’ । शिक्षा एक अहिंसक सामाजिक बदलाव का साधन है । उन्होंने स्व-अनुशासन (स्व-अनुशासन के लिए सभी व्यक्तियों के लिए अलग-अलग अर्थ होता है जैसे विद्यार्थियों के लिए इसका अर्थ है सही समय पर एकाग्रता के साथ पढ़ना और दिए गए कार्य को पूरा करना) के बारे में इस प्रकार कहा था कि ‘स्व-अनुशासन किसी पर थोपा नहीं जा सकता । यह दैनिक जरूरतों से पैदा होता है । उन्होंने स्कूलों में लोकतान्त्रिक शिक्षण की वकालत की थी जिससे शिक्षा के सामान्य रूप से लोग जुड़ सके । शिक्षा समाज को बदलने का एक अहिंसक साधन है । गाँधी जी का शिक्षा दर्शन थ्री (एच) पर आधारित है । जहाँ थ्री (एच) का मतलब हैण्ड, हार्ट तथा हेड है ।
गाँधी जी की आस्था आदर्शवाद और प्रयोजनवाद दोनों में ही थी । उनके जीवन के चार स्तम्भ हैं – अहिंसा, निर्भयता, सत्य और सत्याग्रह । महत्वपूर्ण शब्द आदर्शवाद और प्रयोजनवाद को लेकर है । जिनमें गाँधी जी की सबसे बड़ी देन रही है । सामान्यतः हम किसी भी दार्शनिक को किसी न किसी वाद से जोड़कर चलते हैं । गाँधी जी ने यह प्रयास किया है कि शिक्षा दोनों तरफ से होनी चाहिए । आदर्श वाद के रूप में भी जहाँ नैतिक मूल्यों का क्षरण नहीं हो सके और प्रयोजन वाद के रूप में भी जहाँ हम शिक्षा को जीविकोपार्जन का एक साधन बना सकें । इस प्रकार से उन्होंने आदर्शवाद और प्रायोजनवाद दोनों को साथ लेकर शिक्षा की परिचर्चा की ।
शिक्षा का तात्पर्य यह हुआ कि शिक्षा वह है जो ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ बालक व व्यक्ति के व्यवहार में परिमार्जन लाती है । शिक्षा के द्वारा उत्तम नागरिकों का निर्माण होना चाहिए । शिक्षा का माध्यम मातृ भाषा हो और उसका सम्बन्ध वास्तविक परिस्थिति से हो । कर्मेन्द्रियों का विकास करना भी शिक्षा का दायित्व होना चाहिए । पांच कर्मेन्द्रियाँ (वाक्, पाणी, पाद, उपस्थ, पायु) जिसे गाँधी जी ने शिक्षा के सन्दर्भ लिया है वह वास्तव में सांसारिक बंधनों से परे है । जिस विमुक्त की परिकल्पना हमारे शास्त्रों में की गयी है उसको उसने साकार कर दिया ।
गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘मैंने सदैव ह्रदय की संस्कृति अथवा चरित्र निर्माण को प्रथम स्थान दिया है तथा चरित्र निर्माण को शिक्षा का उचित स्थान माना है । शारीरिक एवं बौद्धिक विकास भी शिक्षा का दायित्व है । इसी प्रकार से संस्कृति शिक्षा का आधार व उसका विशेष अंग है । वह भारतीय संस्कृति, शिक्षा के माध्यम से उभरकर सामने आनी चाहिए ।’ ये वाक्य गाँधी जी ने आत्मकथा में लिखा है । उन्होंने उस संस्कृति को परिपुष्ट करने के लिए लिखा है जो हमारी भारतीय संस्कृति है । उन्होंने आगे लिखा है कि शिल्प का चुनाव बच्चों की योग्यता और क्षेत्रीय आवश्यकताओं के आधार पर किया जाय । शिक्षा को आत्मनिर्भर भी होना चाहिए । इस प्रकार से उन्होंने नैतिक विकास के दायित्वों को शिक्षा का महत्वपूर्ण आधार माना है ।
गरिमा कुमारी
एम्.ए. (हिंदी)
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