साहित्य की अन्य विधाओं में से उपन्यास एक प्रमुख आधुनिक
विधा है। 13वीं सदी में मुद्रणयंत्र का अविष्कार होने से गद्य के विकास में
अभूतपूर्व तेजी आई। सामंतवाद के स्थान पर पूंजीवाद का उदय हुआ और इसी पूंजीवाद के साथ
मध्यवर्ग का भी विकास हुआ। इसी मध्यवर्ग की विशालता और बौद्धिक जागरूकता ने विशाल
पाठक का रूप ले लिया। 14वीं-15वीं शताब्दी में यूरोप में मध्यवर्गीय पाठक वर्ग
पैदा होने से उपन्यास के उदय के लिए बुनियादी संरचना तैयार हो गयी।
भारत में इस प्रकार की परिस्थितियां ईस्ट इंडिया कंपनी के
अस्तित्व में आने से शुरू हुई। अंग्रेजों के संपर्क में आनेवाले द्विभाषी एंव उनके
एजेंट भारतीय मध्यवर्ग के पूर्वज माने जा सकते हैं। अंग्रेजों के भारत आगमन एवं
ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार का भारत के अन्य राज्यों में प्रसार होने के बाद
बहुत सारे पाश्चात्य रहन-सहन एंव अंग्रेजी ढंग की शिक्षा से भारतीय प्रभावित हुए।
1765 ई. में कंपनी के एक आदेश के तहत केवल बंगालियों को एजेंट न्युक्त करने का
निश्चय हुआ जिसके कारण बंगाल में शिक्षित मध्यवर्ग के उदय में सहायता मिली। भारत
के मध्यवर्ग का उदय 1857 ई. के स्वाधीनता संग्राम के बाद ही माना जाता है। अंग्रेजों
के आने से देश में अनेक शिक्षा संस्थायें
खुली, पढ़े लिखे लोगो को नौकरियां मिली जिससे खुशहाल मध्यवर्ग के लोगो की संख्या
बढ़ने लगी। परिणामस्वरूप अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण ऐसे लोगों को सरकारी
नौकरियां मिली और उनका रहन-सहन भी अंग्रेजों जैसा बन गया।
यूरोप में जहाँ पूंजीवाद के विकास के साथ मध्यवर्गीय चेतना
जागृत हुई जिसका सटीक चित्रण रिचर्डसन, हेनरीफिल्डिंग, जॉनआस्टिन आदि के उपन्यासों
में हुआ है।
भारत में उपन्यास का प्रचलन, विकास एवं सृजन का श्रेय
पश्चिमी देशों के लेखकों को ही माना जाता है। पंडित बालकृष्णभट्ट इनकी पुष्टि करते
हुए कहते हैं कि “हमलोग जैसा और बातों में अंग्रेजों की नक़ल करते जाते हैं,
उपन्यास का लिखना भी उन्हीं के दृष्टान्त
पर सिख रहे हैं।” हिंदी में उपन्यास का
आरंभ भी अंग्रेजी से अनुदित उपन्यासों से माना जाता है। सन् 1853 ई. में वंशीधर
द्वारा थार्मस डे के लोकप्रिय उपन्यास ‘सेंड
फोर्ड एंड मर्टन’ का अनुवाद सन् 1879 में किया गया।
भारत में ऐसे अंग्रेज़ी उपन्यासों का प्रभाव सर्वप्रथम बंगाल
के पाठकों पर पड़ा जो अंग्रेजी भाषा एवं सभ्यता से अपेक्षाकृत अधिक परिचित थे। वे अंग्रेज़ी
भाषा के बंगाली, अंग्रेजी उपन्यासों को पढ़ने के लिए उत्सुक रहते थे। फोर्ट विलियम कॉलेज ने
हिंदी, उर्दू की अनेक गद्य कथाओं का
प्रकाशन 19वीं सदी के प्रथम दशक में किया। परिणामतः बंगाल के मध्यवर्ग में उपन्यास
लेखन की रूचि बढ़ने लगी। भारत में उपन्यास लेखन का प्रारम्भ 18वीं शती के उतरार्द्ध
में हुआ यधपि इसके लिए परिस्थितियां 50वर्ष पहले से बन रही थी। बंगाल का उच्च्वर्ग
अंग्रेजी शिक्षा एवं संस्कृति से प्रभावित होने के कारण उपन्यास के संपर्क में
सबसे पहले आया। इसके बाद भारत के अन्य राज्यों के भाषा-भाषी व्यक्ति उपन्यास में
रूचि लेने लगे।
प्रमुख उपन्यास एवं उपन्यासकार
इस कालखंड में उपन्यासकारों द्वारा तत्कालीन परिवेश एवं
परिस्थिति के अनुसार कुछ महत्वपूर्ण उपन्यास निम्नवत हैं;
देवरानी
जेठानी की कहानी (1970) - पंडित
गौरीदत्त
इस उपन्यास की रचना उपन्यास के रूप में नहीं हुई थी बल्कि बालिकाओं
के लिए उपयोगी पाठ्यपुस्तक के रूप में हुई थी यह स्त्रियों के पढ़ने-पढ़ाने तथा
उन्हें गृहस्थ धर्म का उपदेश देने के लिए लिखी गयी थी स्त्रियों के संदर्भ में खुद कथाकार कहते
हैं कि “इस पुस्तक में स्त्रियों की ही बोलचाल और वही शब्द जहां जैसा आशय है लिखे हैं
और यह वह बोली है जो इस जिले के बनिया के कुटुम में स्त्री-पुरुष व लड़के वाले बोलते
चालते हैं... इस पुस्तक में यह भी दरसा दिया है कि इस देश के बनिए जन्म, मरण,
विवाह आदि में क्या-क्या करते हैं पढ़ी और बेपढ़ी स्त्रीयों में क्या-क्या अंतर है,
बालकों का पालन-पोषण किस प्रकार होता है और किस प्रकार होना चाहिए स्त्रियों का
समय किस-किस काम में व्यतीत होता है और क्यों कर होना उचित है बेपढ़ी स्त्रियां जब एक काम को करती
है उसमें क्या-क्या हानि होती है और पढ़ी हुई जब उसी काम को करती है तो उससे क्या-क्या
लाभ होता है स्त्रियों की वह बातें जो आजतक नहीं लिखी गयी मैंने खोजकर सब लिख दी है
और इस पुस्तक में ठीक-ठीक वही लिखा है जैसा आजतक बनियों के घरों में हो रहा है बाल
बराबर भी अंतर नहीं है।” (प्रथम संस्करण की भूमिका) रॉय, गोपाल, हिंदी उपन्यास
का इतिहास (पृष्ट संख्या-25)
इस रचना में केवल स्त्री शिक्षा की कहानी नहीं है बल्कि 19
वीं शताब्दी के मध्यवर्गीय बनिया समाज के जीवन का प्रतिनिधि व उसका यथार्थ चित्र
भी है। कथाकार ने अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर इस वर्ग की आर्थिक व्यवस्था,
रीती-रिवाज, जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार, पुरानी और नई सोच, सामाजिक और
धार्मिक विश्वास, नैतिक मूल्य, समाज में व्याप्त अशिक्षा, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता,
अपव्यय, बालविवाह, विधवाओं की दशा आदि का चित्रण किया है। बाद में इस तरह की दो
पुस्तकें वामा शिक्षक(1872) और भाग्यवती (1877) लिखे गए। इन कृतियों का उद्देश्य
भी स्त्री शिक्षा का विकास और आदर्श स्त्री चरित्र की प्रस्तुति थी।
भाग्यवती(1863) - श्रद्धाराम फुल्लौरी
भाग्यवती का केन्द्रीय कथ्य स्त्री शिक्षा है जिसमें मध्यवर्गीय
परिवार की स्त्रियों की हीन दशा का
विस्तृत चित्रण है। वे स्त्रियों की हीन दशा से बहुत चिंतित रहते थे। वे लिखते
हैं, “...यद्यपि कई स्त्रियां कुछ पढ़ी लिखी तो होती है परन्तु सदा अपने ही घर में
बैठे रहने के कारण उनको देश-विदेश की बोल-चाल और अन्य लोगों से बरत व्यवहार की
पूरी बुद्धि नहीं होती।”
इस उपन्यास में कथ्य की कोई नवीनता न होते हुए भी
बाल-विवाह, भूत-प्रेत, ओझा-सयानों में विश्वास, बच्चों को टीका न लगवाने, उन्हें
जेवर पहनाने, लड़कियों को शिक्षा न देने, शादी विवाह के अवसर पर अपव्यय करने,
एलोपैथी डॉक्टरों से इलाज न कराने आदि की आलोचना की गयी है। इसमें काशी के समाज
तथा हरिद्वार की कुम्भ मेले की सच्ची तस्वीर भी लेखक ने दिखाई है।
निस्सहाय हिन्दू(1890) - राधाकृष्ण दास
राधाकृष्ण दास का उपन्यास निस्सहाय हिन्दू का केन्द्रीय
बिंदु गोवध निवारण पर आधारित है। इसमें हिन्दुओं की निस्सहायता एवं मुसलामानों की
धार्मिक कट्टरता का वर्णन है। सांप्रदायिक सद्भाव का ऐसा मार्मिक चित्रण किया है
जो इस काल के लिए एक दुर्लभ बात थी। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में हिन्दू
मुसलामानों की एकता देखकर ब्रिटिश शासन ने उनमें फूट डालकर शासन करने की राजनीति
अपनाई थी। दो समाजों में फूट डालने का आसान तरीका धार्मिक भावना को उभारना होता है।
19वीं सदी के सातवें दशक के बाद से अंग्रेज शासक यही कर रहे थे। हिन्दू समाज गौ
हत्या के लिए बहुत ही संवेदनशील थे। अंग्रेज स्वयं गौ-मांस खाते थे साथ ही मुसलामानों
में भी गौ-मांस खाने का प्रचालन था। हिन्दू और मुसलामानों को भड़काने के लिए इससे
अच्छा और कोई तरीका न था। अंग्रेज हिन्दू और मुसलामानों में फूट डालकर राज करना
चाहते थे।
इस उपन्यास में समकालीन
राष्ट्रय भावना और नवजागरण की चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। यद्यपि उपन्यासकार ने
स्पष्टतः ब्रिटिश शासन की आलोचना नहीं की है, पर इस शासन में देश की दुर्दशा,
अंग्रेज सरकार की चमचा की करतूतों, अंग्रेजों से डरे हिन्दुस्तानियों की
हास्यास्पद हरकतों, टेक्स में निरंतर होती वृद्धि उसकी वसूली में की जाने वाली
धांधली, पुलिस थाने में फैले भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता, अंग्रेजों के आवास
स्थान, सिविल लाइन्स आदि की आलोचना की गयी है।
परीक्षा गुरु (1882) - लाला श्रीनिवास दास
लाला श्रीनिवास दास के द्वारा 1882 ई. में
परीक्षा गुरु उपन्यास की रचना की गयी। लाला श्रीनिवास दास ने इसे- ‘अनुभव द्वारा उपदेश
मिलने की एक संसारी वार्ता’ और ‘अपनी भाषा में एक नयी चाल की पुस्तक’ कहा था। परीक्षा
गुरु उपन्यास की कथावस्तु दिल्ली के एक सेठ पुत्र मदनमोहन की कहानी है जो
पाश्चात्य सभ्यता एवं भौतिकवादी चकाचौंध से प्रभावित होकर कुसंगति में पड़ गया और
अपनी सारी संपत्ति नष्ट कर दी। अंत में उसके एक सज्जन मित्र ब्रजकिशोर ने उसे
धीरे-धीरे सुधारने का प्रयास किया तथा अंत में वह सुधर भी गया। इस उपन्यास में
‘अध्याय या परिच्छेद’ के स्थान पर ‘प्रकरण’ शब्द का प्रयोग किया गया है। पांच
प्रकरणों में विभक्त परीक्षा गुरु की कथा का घटना काल केवल पांच दिनों का है।
परीक्षा गुरु की कथा योजना बहुत कुछ नाटक की वास्तु योजना के समान है। अंत में
कथाकार नाटकीय ‘भरत वाक्य’ की तरह पाठकों से कहता है, “जो बात सौ बार समझाने से
समझ में नहीं आती वह एक बार की परीक्षा से भली भाँती मन में बैठ जाती है और इसी
वास्ते लोग परीक्षा को गुरु मानते हैं।” लेखक का मूल दृष्टिकोण इस उपन्यास में
उपदेशात्मक एवं सुधारवादी है।
नूतन ब्रह्मचारी (1886) - बालकृष्ण भट्ट
बालकृष्ण भट्ट के द्वारा 1886 में नूतन ब्रह्मचारी उपन्यास की
रचना की गई। इस उपन्यास का नायक विनायक डाकुओं का ह्रदय परिवर्तन करता है।
महाराष्ट्रीय ब्राह्मण विट्ठल राव के पुत्र ब्रह्मचारी विनायक का चित्रण बाल
मनोविज्ञान पर आधारित है। नूतन ब्रह्मचारी लगभग बारह हजार शब्दों की एक लम्बी कथा
या अधिक से अधिक ‘उपन्यासिका’ है। इसकी दो विशेषताएं पहली ही दृष्टि में सामने आती
है। यह ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें 50 वर्ष पूर्व की स्थिति का चित्रण किया गया
है। जब भारत पर अंग्रेजों का एकछत्र शासन स्थापित नहीं हुआ था और पिंडारियों की
लूटमार से आराजकता फैली हुई थी। इस प्रकार भट्ट जी एक दृष्टि से हिंदी के प्रथम
ऐतिहासिक उपन्यासकार माने जा सकते हैं। दूसरी बात यह है कि इसमें भट्ट जी अपने
सुपरिचित अवध-गोरखपुर क्षेत्र का कथा-भूमि न बनकर महाराष्ट्र के नासिक क्षेत्र का
चित्रण करते हैं। भट्ट जी के पूर्वज मालवा प्रान्त के निवासी थे जहाँ से राजनीतिक
आराजकता के कारण भागकर उन्हें उत्तरप्रदेश में बसना पड़ा था।
चंद्रकांता एवं चंद्रकांता संतति (1887) - देवकीनंदन खत्री
उपन्यासों की दुनिया में अपने रचना से धूम मचाने वाले
देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता को पढ़ने के लिए अन्य भाषा भाषियों के ह्रदय
में हिंदी सिखने की चाह उत्पन्न हो गयी जो अभूतपूर्व घटना हिंदी के विकास में मानी
जाती है। चंद्रकांता एवं चंद्रकांता संतति की अभूतपूर्व लोकप्रियता से बाबू देवकीनंदन खत्री की चर्चा भारत के सभी भाषा-भाषी
क्षेत्रों में फैलने लगी।
तिलस्मी एवं ऐयारी उपन्यासों
का मूल आधार ‘तिलस्म होशरुबा’ है। देवकीनंदन खत्री ने इसी को आधार मानकर अपनी प्रसिद्ध
औपन्यासिक कृति ‘चंद्रकांता’ की रचना 1891 में की। इसके अलावा ‘काजर की कोठारी’,
‘भूतनाथ’, ‘कुसुम कुमार’, ‘नरन्द्र मोहिनी’, ‘वीरेन्द्र वीर’ अदि उपन्यासों की
रचना की। इन उपन्यासों में घटनाओं का संयोजन इतनी कुशलता से किया गया है कि पाठक
की जिज्ञासा अंततक बनी रहती है और वे उपन्यास के ख़त्म होने तक एक जादुई रूप से
बंधा होता है। आगे क्या हुआ, तिलस्म कैसे टूटा आदि को लेकर पाठक खाना-पीना, सोना
आदि भूल जाते थे। बाबू देवकीनंदन खत्री की यह प्रेमपरक तिलस्मी उपन्यास भले ही
साहित्यिक दृष्टि से उच्च कोटि की न हो परन्तु पाठकों को बांधने की शक्ति इसमें
बेजोर है। इस उपन्यास का मूल उद्देश्य मनोरंजन ही है। फिर भी यह पाठकों की कौतुहल
वृत्ति को जगाकर उन्हें घटनाक्रम में इस तरह बाँध लेता है कि थोड़ी देर के लिए वे
अपने आप को विस्मृत कर बैठते हैं। इससे यह सिद्ध होता है इसकी रचना केवल मनोविनोद
के लिए ही नहीं है अपितु समाज को नैतिक उपदेश देने एवं पाठकों को रसानुभूति करने
के उद्देश्य से भी की गयी है।
श्यामा स्वप्न (1888) - ठाकुर जगमोहन सिंह
ठाकुर जगमोहन सिंह ने इस उपन्यास को ‘गद्य प्रधान चार
खण्डों में एक कल्पना’ और ‘एन ओरिजिनल नॉवेल इन हिंदी प्रोज’ की संज्ञा दी है।
शिल्प की दृष्टि से यह उपन्यास काफी महत्त्वपूर्ण है। इसका कथा नायक रात्रि के चार
प्रहरों में चार स्वप्न देखता है, जो मिलकर एक प्रेम कथा का रूप ग्रहण करता है।
स्वप्न के अनेक असंगत बातों के बीच से कथा नायक श्याम सुन्दर और नायिका श्यामा की
प्रेम कथा कुछ स्पष्ट होकर सामने आती है। जो प्रेमाख्यानों के अधिक निकट है।
कथानायक का चारों स्वप्न एक दूसरे से फिल्म की तरह जुड़ा हुआ है जिससे एक मुकम्मल
प्रेमकथा का निर्माण होता है। कथानायक के प्रेम की अभिव्यक्ति यदि स्वप्न के
असम्बन्ध बिम्बों के रूप में ही होती तो यह उपन्यास अपने समय का एक क्रांतिकारी उपन्यास होता। परन्तु ऐसा नहीं हुआ है। इसके
बावजूद ‘श्यामा स्वप्न’ की शिल्पगत नवीनता अपनी प्रयोग की दृष्टि से विशिष्ट माना
जाता है।
सरकटी लाश (1900) - गोपालराम गहमरी
सरकटी लाश(1900), जासूस की भूल(1901), जासूस पर
जासूसी(1904), जासूस की ऐय्यारी आदि रचनाएं जासूसी उपन्यास की श्रेणी में आते हैं।
बाबू देवकीनंदन खत्री से प्रभावित होकर ही गोपालराम गहमरी ने इस क्षेत्र में
प्रवेश किया था। इसलिए इनका भी कथालेखन व्यावसायिक था। ये सभी अपने समकालीन पाठकों
की कौतुहल जिज्ञासा वृत्ति को जगाकर उनका मनोरंजन करना चाहते थे। जो पाठक खत्री जी के ऐय्यारी-तिलस्म प्रधान उपन्यासों
के रोमांस में लीन था उसके स्वाद को बदलने के लिए गहमरी जी ने अपराध प्रधान और
जासूसी कथाएँ उपलब्ध कराई। इनकी कथाओं में प्रेमकथा की जगह अपराध की कथा होती थी।
वे अंग्रेजी के जासूसी उपन्यासकार आर्थर कानन डायल से बेहद प्रभावित थे। आधुनिक
अपराध शास्त्र और अपराध मनोविज्ञान के विकास में जासूसी कथाओं के लिए इन्होनें
अनंत संभावनाएं प्रदान की। इनकी कथाओं में आधुनिकता थी और बौद्धिक क्रीडा के लिए पर्याप्त
जगह मौजूद था। शिल्प की दृष्टि से गहमरी जी अपराध प्रधान कथाओं को उस मुकाम तक
नहीं पहुंचा पाए जिस मुकाम पर अंग्रेजी के जासूसी उपन्यास थे। उसके सामने इनका
शिल्प बहुत साधारण प्रतीत होता है। यही कारण है कि शुक्लजी ने गहमरी जी की जासूसी
कथा पुस्तकों को साहित्य कोटि में न रखते हुए अपने इतिहास से बाहर रखा है।
ठेठ हिंदी का ठाठ(1899) - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
अयोध्या सिंह उपाध्याय ने इस उपन्यास का लेखन जॉर्ज
ग्रियर्सन के उस अनुरोध पर किया था जो उन्हें खड्ग विलास प्रेस के स्वामी बाबू रामदीन
सिंह के नाम से मिला था इस उपन्यास को ‘रानी केतकी की कहानी’ के पूरक के रूप में विद्वानों
के द्वारा देखा जाता है। ठेठ हिंदी यानि तद्भव प्रधान हिंदी। विदेशज शब्दों से
मुक्त हिंदी। उपन्यास रचना के पीछे का मकसद इसके नाम से ही जाहिर हो जाता है। इस
उपन्यास में दो आदर्श प्रिय युवा-युवती की कहानी है। जो समाज की रूढ़ियों और
कुरीतियों के कारण चाहकर भी शादी नहीं कर पाते हैं। दोनों के प्रेम में स्वार्थ का
नाम नहीं है। पूर्णतः त्यागमय है यह कथा पारंपरिक आदर्शवादी किस्म की ही कहानी कही
जाएगी परन्तु इस कहानी का महत्व इस दृष्टि से है कि देवबाला और देवनंदन नामक प्रेम
युगल के जरिए कहानी कही गई है जिससे हरिऔध के मानसिक लोक में चलनेवाले उथल-पुथल का
अंदाजा भी मिल जाता है उनके पारंपरिक और आदर्शवादी मन में समाज के प्रति विक्षोभ की
तरंगे उठने लगी थी। संस्कृत के प्रभाव और आतंक से मुक्त हिंदी का ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’
उपन्यास के पहले पृष्ट से ही अत्यंत आकर्षक रूप में प्रतीत होता है ‘सूरज डूबने पर
है। बादल की लाली छाई हुई है। बयार जी को ठंडा करते हुए धीरे-धीरे चल रही है। थोरी
देर में सूरज डूबा। कुछ झूट पुटा सा हो गया।’ वाकइ यह हिंदी पाठकों के जी को ठंडा
करनेवाली कही जाएगी। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से हिंदी बोझिल हो चुकी थी। हिंदी का
व्यक्तित्व भी बोझिल हो चुका था उसी की प्रतिक्रिया में हरिऔध जी ने इस उपन्यास की
रचना की है।
आदर्श हिन्दू (1914) - मेहता लज्जाराम शर्मा
आदर्श हिन्दू(1914), स्वतंत्र रमा और परतंत्र
लक्ष्मी(1899), आदर्श दंपति(1904), धूर्त रसिकलाल(1889) आदि इनकी कई रचनाएं प्रसिद्ध
हैं। लज्जराम शर्मा के उपन्यासों में नई शिक्षा, नवीन आदर्श, पाश्चात्य प्रभावों
की निंदा की गयी है तथा सतीप्रथा, पर्दा-प्रथा, अशिक्षा आदि का समर्थन किया गया है
‘सुशीला विधवा ‘ में मध्यवर्ग की रूढ़िवादिता और परम्पराओं के समर्थन का चित्र
मिलता है। इसका मुख्य कारण लेखक की सनातन धर्म में अशक्ति है “सुशीला को जिस प्रकार
उन्होंने चित्रित किया है, उसमें जीवन की गति नहीं, गतिशुन्यता की चरमसीमा है। वह
निर्जीव कठपुतली की भांति उपन्यासकार के संकेतों पर परिक्रमा करती रहती है। उस पर
यथार्थ की छाया नहीं, परम्पराओं एवं रुढियों का आभिशाप है।”
युग अन्य उपन्यासों के अलावा
इस कालखंड में और भी कई उपन्यासकारों ने उपन्यासों की रचना की है। अन्य महत्वपूर्ण
रचनाओं में रहस्य कथा (1879), एक अजान सौ सुजान(1892), बिगड़े का सुधार (1907),
अधखिला फुल आदि। इसी कालखंड में किशोरीलाल गोस्वामी कृत जिन्दे की लाश, तिलस्मी सीसमहल,
लीलावती, याकुती तख्ती आदि उल्लेखनीय कृति है तो गोपालराम गहमरी ने जासूसी,
एतिहासिक उपन्यास भी लिखे हैं जिनमें प्रणयिनी परिणय, मस्तानी, शर्वरी, प्रेममयी
आदि उपन्यास हैं। दुर्गाप्रसाद खत्री का उपन्यास रक्त माल, अद्भूत भूत,
भूतनाथ(अंतिम पंद्रह भाग) इनकी रचनाएं हैं। प्रतापनारायण मिश्र की इंदिरा,
राधा-रानी आदि। मिश्रबंधु का वीरमनी, विक्रमादित्य, पुष्यमित्र आदि। रामनरेश
त्रिपाठी की मारवाड़ी और पिशाचिनी, वीरांगना आदि।
इस प्रकार इस काल खंड के जितने भी उपन्यास रहे हैं वे
मुख्यतः सुधारवादी एवं उपदेसवादी प्रवृत्ति से परिचालित थे और उनका मुख्य उद्देश्य
मनोरंजन ही माना जा सकता है। इन विशेषताओं के अलावा भी इस काल में सामाजिक,
ऐतिहासिक, तिलस्मी, जासूसी उपन्यासों की रचना काफी प्रचुर मात्र में हुई है। जिसका
जन-जीवन से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध दिखाई नहीं पड़ता है। तिलस्मी उपन्यासों में
यद्यपि प्रेम चित्रण का अवसर भी आ गया है। किन्तु उपन्यासों का मूल उद्देश्य
रहस्य, रोमांस की अय्यारी एवं तिलस्मी दुनिया में ले जाकर पाठकों को चमत्कृत करना
ही रहा है।
प्रेमचंद पूर्व हिंदी
उपन्यासों के विषय समाज में विभन्न प्रकार के कुप्रथाओं अंधविश्वासों से
सम्बंधित रहे हैं। इसके अंतर्गत पर्दा प्रथा, बहु-विवाह, स्त्री-पुरुष समानता का
प्रश्न, नारी शिक्षा, अनमेल विवाह आदि रहे हैं। इस कालखंड में ऐतिहासिक उपन्यासों
के अंतर्गत सुलतान रजिया बेगम, रंगमहल में हलाहल, नूरजहाँ बेगम व जहाँगीर, कश्मीर
पतन, लाल कुंवर व शादी रंगमहल आदि रहे हैं। इसके साथ शुद्ध मनोरंजन परक
उपन्यासों में तिलस्मी-ऐय्यारी, चंद्रकांता,चंद्रकांता संतति, जासूसी उपन्यास, घड़े
में थाली, आदि रहे हैं। इसके अलावा इस काल में उपन्यासकारों द्वारा अनुदित उपन्यास
की भी रचना की गयी है।
सामाजिक उपन्यास – लाला श्रीनिवास दास (1851-1887) का ‘परीक्षा गुरू’, किशोरीलाल
गोस्वामी(1865-1932) का ‘लवंग लतिका’, ‘कुसुम कुमारी’, बालकृष्ण भट्ट(1844-1914)
की ‘नूतन ब्रह्मचारी’, ‘सौ अजान एक सुजान’, ठाकुर जगमोहन सिंह(18571899),
राधाकृष्ण दास(1865-1907) का ‘निस्सहाय हिन्दू’, लज्जाराम शर्मा (1863-1931) का
‘धूर्त रसिक लाल’ एवं ‘स्वतंत्र रमा और परतंत्र लक्ष्मी’, अयोध्या सिंह उपाध्याय
का ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’, और ‘अधखिला फूल’, ‘देवबाल’, श्री मन्नन द्विवेदी(1884-1921)
की ‘रामला’ और ‘कल्याणी’ आदि ।
उपर्युक्त सामाजिक उपन्यासों के अतिरिक्त पंडित देवी प्रसाद
शर्मा कृत ‘सुन्दर सरोजनी’(1893), श्री बलदेव प्रसाद मिश्र कृत ‘संसार’(1907),
श्री इश्वरी प्रसाद शर्मा कृत ‘हिराव्य्मायी’(1908), श्री हरस्वरूप पाठक कृत ‘भारत
माता’ (1915) आदि उपन्यास भी हैं।
ऐतिहासिक उपन्यास – किशोरीलाल गोस्वामी की ‘तारा व क्षत्र कुल कमलिनी
(1902), ‘कनक कुसुम व मस्तानी’ (1903), ‘सुल्ताना रजिया बेगम व रंग महल में
हलाहल’(1904), ‘ह्रदय हारिणी व आदर्श रमणी’(1904), ‘लवंगलता व आदर्श बाला’(1904),
‘मल्लिकादेवी व बंग सरोजनी’(1905), ‘गुलबहार व आदर्श मातृस्नेह’(1916), ‘लखनऊ की
कब्र या शाही महलसरा’(1917) आदि प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास हैं। गंगा प्रसाद
गुप्त की ‘नूरजहाँ’(1902), ‘वीर पत्नी’ (1903), ‘कुमार सिंह सेनापति’ (1903),
‘हम्मीर’(1903) आदि। जयराम दास गुप्त की ‘कश्मीर पतन’ (1907), ‘नवाबी
परिस्तान वा वाजिद अलीशाह’ (1909), ‘कलावती’(1909), ‘मल्काचाँद बीबी’(1909) आदि। श्री
बलदेव प्रसाद मिश्र की ‘अनारकली’(1900), पृथ्वीराज चौहान’(1902),
‘पानीपत’(1902)आदि। इसके अलावा बाबू ब्रजनंदन सहाय ने ‘लाल चीन’ नामक ऐतिहासिक
उपन्यास लिखा है।
तिलस्मी ऐयारी- ऐसे उपन्यास जिसमें तिलस्म इमारतों को तोड़कर खजाना प्राप्त करने की कथा रहती
है वे उपन्यास तिलस्मी कहलाते हैं। ऐसे कार्य को पूरा करने में नायकों अपने ऐयारों
बड़ी सहायता मिलती है। ‘ऐयार’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘चपल
व्यक्ति’। श्री देवकीनंदन खत्री के अनुसार ‘ऐयार उसको कहते हैं, जो हर एक ‘फन’
जनता हो। शक्ल बदलना और दौड़ना उसका मुख्य कार्य है।’ तिलस्म के साथ ऐयार का
सम्बन्ध जुड़ जाने से दोनों को एकसाथ मिलाकर तिलस्मी ऐयारी उपन्यास कहने की परंपरा
चल पड़ी।
हिन्दी में तिलस्मी ऐयारी उपन्यासों के प्रवर्तक बाबू
देवकीनंदन खत्री हैं। इन्होनें पहले ‘चंद्रकांता’ लिखा। फिर इसके जोरदार स्वागत के
पश्चात् ‘चंद्रकांता संतति’(1896), ‘नरेन्द्र मोहिनी’(1893), ‘वीरेन्द्र
वीर’(1895), ‘कुसुम कुमारी’(1899) आदि अनेक उपन्यासों की रचना की। इनके अलावा हरेकृष्ण
जौहर ने ‘कुसुमलता’, भयानक भ्रम’(1900), ‘नारी पिशाच’(1901), ‘निराला
नकाबपोश’(1902), ‘भयानक खून’(1903) आदि हैं।
इन उपन्यासकारों के अलावा किशोरीलाल गोस्वामी ने
‘तिलस्मी शीशमहल’(1905), बाबू देवकीनंदन खत्री के पुत्र दुर्गाप्रसाद खत्री
ने ‘भूतनाथ’ और ‘रोहताश मठ’, गुलाबदास का ‘तिलस्मी बुर्ज’, विशेश्वर
प्रसाद वर्मा का ‘वीरेन्द्र कुमार’, श्री रामलाल वर्मा का ‘पुतली का
महल’ आदि तिलस्मी उपन्यासों की रचना की गयी ।
जासूसी उपन्यासों के अंतर्गत चोरी, डकैती,व अन्य प्रकार की अपराधिक घटनाओं के तहत
अपराधियों की खोज की जाती है। जासूस अनेक प्रकार के कौशल द्वारा अपराधी को पकड़ने
का प्रयास करता है और अपराधी घटनाओं को ऐसा उलझता है कि सत्य का पट लगाना कठिन हो
जाता है। अपराधी जासूस के साथ-साथ चलता रहता है लेकिन पाठक उसे नहीं समझ पाता
लेकिन अंत में जब वही व्यक्ति अपराधी सिद्ध होता है तो पाठक विस्मित हो जाता है। ऐसे
विस्मयजन्य आनंद की सृष्टि करना ही इस उपन्यास का लक्ष्य होता है। तिलस्मी ऐयारी
उपन्यासों में जादुई तत्वों का प्रयोग होता है तो जासूसी उपन्यासों में बुद्धि
कौशल और वैज्ञानिक साधनों के प्रयोग होता है।
श्री गोपालराम गहमरी(1866-1946) ने 1898 में बांग्ला से ‘हीरे का मोल’ उपन्यास
का अनुवाद प्रकशित कराया। इसे पाठकों ने बहुत पसंद किया। इससे उत्साहित होकर गहमरी
जीने 1900 ई. में ‘जासूस’ नामक मासिकपत्र निकाला। इसी के प्रभावस्वरूप उन्होंने
लगभग दो सौ जासूसी उपन्यास लिखे। इनके उपन्यासों में ‘अद्भुत लाश’(1896),
‘गुप्तचर’(1899), ‘बेकसूर की फांसी’(1900), ‘खुनी कौन’((1900), ‘चक्करदार
चोरी’((1901), ‘जासूस पर जासूसी’((1904), ‘गुप्त भेद’(1913), ‘जासूस की
ऐयारी’((1914) आदि।
गोपालराम के गहमरी के अलावा श्री रामलाल वर्मा का ‘चालाक चोर’, ‘जासूस
के घर खून’, किशोरी लाल गोस्वामी की ‘जिन्दे की लाश’((1906), जयराम दास
का ‘लंगड़ा खुनी’(1907), ‘काला चाँद’ आदि उपन्यास लिखे गए।
अनुदित उपन्यास – उपन्यासों के अनुवाद की परंपरा भारतेंदु के समय से ही आरम्भ हो गयी
थी। श्री गदाधर सिंह ने रमेशचंद्र दत्त कृत और बंकिम चन्द्रचटर्जी के
‘दुर्गेशनंदनी’ का अनुवाद किया। बाबू राधाकृष्ण दास ने तारकनाथ गांगुली के ‘स्वर्णलता’
का अनुवाद किया। मुंशी हरितनारायण लाल ने स्वर्न्कुअरि के ‘दीप निर्वाण’ का अनुवाद
किया। इसी कालखंड में बंकिमचंद्र, रमेशचंद्रदत्त, शरतचंद्र, रविन्द्रनाथ आदि के
उपन्यासों के अनुवाद प्रकाशित किये गए। श्रीमती मल्लिकदेवी ने भारतेंदु से प्रेरित
होकर मराठी से ‘चंद्रप्रभापूर्ण प्रकाश’ का अनुवाद किया। वहीँ बाबू रामकृष्ण वर्मा
ने उर्दू से घटना प्रधान उपन्यासों का नुवाद किया जिसमें ‘अमला वृतांत माला’, ‘ठग
वृतांत माला’ आदि का अनुवाद किया।
उपर्युक्त अनुवाद साहित्य का
हिंदी उपन्यास के विकास में एक महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद से पहले हिंदी
उपन्यास की रचना नवीन सामाजिक मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए आरम्भ हुई थी। परन्तु
इस युग में पाठकों की रुचि एवं उनकी शिक्षा का परिष्कार नहीं हुआ था। उपन्यासकारों
के पाठक के ऐसे सोये हुए अवस्था को जगाने के बजाय उसे मनोरंजन में ही लगा दिया।
परिणामस्वरूप प्रेमप्रधान, रोमांचकारी, साहसिक तथा अद्भुत घटना प्रधान उपन्यासों
की भरमार हो गयी। हिंदी कथा साहित्य में तिलस्मी, ऐयारी, जासूसी और साहसिक
उपन्यासों की भरमार हो गयी। इस युग के सबसे बड़े उपन्यासकार किशोरीलाल गोस्वामी भी
प्रेम, चुहल, रोमांस और कुतूहल के रहस्य लोक के निर्माण में प्रवृत्ति दिखाई दे
रहे हैं। औपन्यासिक कलात्मकता की दृष्टि से इस युग का उपन्यास हिंदी कथा साहित्य
में उतना महत्व नहीं रखता है। तिलस्मी उपन्यासों में मनोरंजन की प्रधानता है उनका
जनजीवन से कोई सरोकार नहीं है। उनमें अतिमानवीयता एवं अस्वाभाविकता है। जो
ऐतिहासिक उपन्यास हैं वे केवल नामधारी उपन्यस हैं। हाँ, यदि इस युग के उपन्यासों
में यदि साहित्य की स्थायी संपत्ति बनाने योग्य कोई सामग्री है तो वह है इस युग का
अनुदित उपन्यास।
गरिमा कुमारी
सन्दर्भ:
1.
ज्ञानचंद्र जैन, प्रेमचंद पूर्व के हिंदी उपन्यास, प्रकाशन 1998
2.
राजेंद्र प्रसाद शर्मा, हिंदी गद्य के निर्माता पंडित बालकृष्ण भट्ट,
3.
अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, समाचार पत्रों का इतिहास
4.
रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास
5.
गोपाल राय, हिंदी उपन्यास का इतिहास
6.
हिंदी उपन्यास एक अंतर्यात्रा, डॉ. रामदरश मिश्र
7.
हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष, श्री शिवदान सिंह चौहान
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